तीसरा सूक्त
ऋ. 5.64
आनंदधामकी ओर ले जानेवाले
[ ऋषि अनंत विशालता और सामंजस्यके अधिपतियोंका आवाहन करता है, जिनकी भूजाएँ सत्य और आनंदके सर्वोच्च आत्मिक स्तरका आलिंगन करती हैं ताकि वें उद्बुद्ध चेतना और ज्ञानकी अपनी उन भुजाओंको उसकी ओर फैलाएं जिसके फलस्वरूप वह उनका सर्व-आलिंगी आनंद प्राप्त कर सके । मित्रके पथसे वह उसके सामंजस्योंके उस हर्षोल्लासकी अभीप्सा करता है जिसमें न घाव है न घात । प्रकाशदायी शब्दकी शक्तिसे सर्वोच्च सत्ताका ध्यान और धारण करता हुआ वह उस भूमिकामें अपनी अभिवृद्धिकी अभीप्सा करता है जो देवोंका उपयुक्त धाम है । दोनों महान् देव उसकी सत्तामें अपने दिव्य बल और बृहत्ताके उस विशाल लोकका सर्जन करें । वे दिव्य प्रकाश और दिव्य शक्तिकी उषामें उसके लिए इस लोकका प्रचुर ऐश्वर्य और परम आनन्द ले आवें । ] १ वरुणं वो रिशादसमृचा मित्रं हवामहे । परि व्रजेव बाह्नोर्जगन्वांसा स्वर्णरम् ।।
(रिशादसं वरुणं) शत्रुके नाशक वरुण और (मित्रं) मित्रका, (व:) इन दोनोंका (ऋचा हवामहे) हम प्रकाशपूर्ण शब्दसे आवाहन करते हैं । उनकी (बाह्वो:) भुजाएं (स्वर्णरम्1) प्रकाशकी शक्तिके लोकको (परि जगन्वासा) इस प्रकार परिवेष्टित करती हैं (व्रजा-इव) मानो चमकते हुए गोयूथोंके बाड़ेके [ परि जगन्वांसा ] चारों तरफ डाली हुई हों । २ ता बाहवा सुचेतुना प्र यन्तमस्मा अर्चते । शेवं हि जायं वां विश्वासु क्षासु जोगुवे ।। ___________ 1. स्वर्णरम्--'स्वर्' सत्यका सौर लोक है और इसके गोयूथ सौर दीप्तियों- की किरणें है । इसलिए इसकी तुलना चमकती हुई वैदिक गौओंके बाड़ोंसे की गई है । १८९ (अस्मा) उस मनुष्यके प्रति (अर्चते) जो प्रकाशप्रद वाणीसे तुम्हारी अर्चना करता है (ता सुचेतुना1 बाहवा) अपनी उन जागृत ज्ञानकी भुजाओं-को (प्र यन्तम्) फैलाओ । (वां) तुम दोंनोंका (शेवं) आनंद (जार्य हि) वंदनीय है जो (विश्वासु क्षासु) हमारी सब भूमिकाओंमें2 (जोगुवे) व्याप्त हो जायगा । ३ यन्नूनमश्यां र्गातं मित्रस्य याया पथा । अस्य प्रियस्य शर्मर्ण्याहसानस्य सश्चिरे ।।
(मित्रस्य पथा) मित्र3के मार्गसे (यायाम्) मैं चल सकूं (यत् नूनं) जिससे कि मैं इस क्षण ही (गतिम् अश्याम्) अपनी यात्राके लक्ष्यको प्राप्त कर लूं । इसलिए मनुष्य (अस्य प्रियस्य) उस प्रिय मित्रके (शर्मणि सश्चिरे) आनंदके साथ दृढ़तासे संलग्न हो जाते हैं (अहिंसानस्य) जिसमें कोई चोटकी वेदना नहीं है । ४ युवाभ्यां मित्रावरुणोपम धेयामृचा । यद्ध क्षये मघोनां स्तोतणां च स्पूर्धसे ।।
(मित्रावरुणा) हे मित्र ! हे वरुण! (ऋचा) प्रकाशदायी शब्दके द्वारा (युवाम्याम् उपमं) मेरा विचार उस सर्वोत्तमको धारण करे जो तुम्हारी निधि है; ताकि (यत् मघोनां स्तोतृणां च) वह विचार ऐश्वर्यशलियोंके लिए तथा उन मनुष्योंके लिए जो तुम्हारी स्तुति करते हैं, (क्षये स्पूर्धसे ह) प्रचुर ऐतवर्यके स्वामियोंके धामको प्राप्त करनेकी अभीप्सा करे5 । ____________ 1, बाहुओंका विशेषण 'सुचेतुना' (अर्थात् जागृत-ज्ञानरूपी) यह प्रकट करता 2. हमारी सत्ताके सब स्तरोंमें । 3. मित्र, जो हमारी उच्चतर दिव्य सत्ताके पूर्ण तथा अक्षुण्ण सामंजस्योंका सर्जन करता है । 4. गति--यह शब्द आज भी मनुष्यके पृथ्वीपर किये गये कार्य या प्रयत्नोंसे प्राप्त आध्यात्मिक या अतिपार्थिव स्थितिके लिए प्रयुक्त किया जाता है । परन्तु इसका मतलब लक्ष्य या पथकी ओर गति भी हो सकता है : "एसी कृपा कर कि मैं अब भी पथ प्राप्त कर सकूँ, मित्रके पथ पर गति कर सकूं ।'' 5. अर्थात्, भनुष्योंमें प्रकट होता हुआ वह उनकों अपने निज धाम--सत्यके स्तर तक उठा ले जानेका यत्न करेगा । १९० आनन्दधामकी ओर ले जानेवाले ५ आ नो मित्र सुदीतिभिवर्वरुणश्च सधस्थ आ । स्बे क्षये मघोनां सखीनां च वृधसे ।।
(मित्र) हे मित्र ! तुम (वरुणश्च) और वरुण (सुदीतिभि:) अपने पूर्ण दानोंके साथ (न: सधस्थे आ) हमारे समान-वासस्थानके लोकमें हमारे पास आओ । (मघोनां स्वे क्षये वृधसे) प्रचुर ऐश्वर्योंके स्वामियो1के अपने घरमें वर्धित होनेके लिए तथा (सरवीनां च [ वृधसे ] ) अपने साथियोंकी बुद्धिके लिए (न: आ) हमारे पास आओं । ६ युवं नो येषु वरुण क्षत्र बृहच्च बिभृथ: । उरु णो वाजसातये कृतं राये स्वस्तये ।।
(वरुण युवं) हे मित्र और वरुण, तुम दोनों (येषु) अपने उन दानोंमें (न:) हमारे पास (क्षत्र बृहत् च) बल2 और विशालता (बिभृथ:) लाओ । (वाजसातये) प्रचुर ऐश्वर्योंकी विजयके लिए, (राये) आनंदके लिए और (स्वस्तये) हमारी आत्माकी प्रसन्नताके लिए (न: उरु कृतम्) हमारे अन्दर विशाल लोककी रचना करो । ७ उच्छन्त्यां मे यजता देवक्षत्रे रुशद्गवि । सुतं सोमं न हस्तिभिरा पड्भिर्धावतं नरा बिभ्रतावर्चनानसम् ।।
(यजता) हे यज्ञके अधिपतियो ! (उच्छन्त्यां) उषाके फूटने पर, (रुशत्-गवि) रश्मिके चमकनेपर (देवक्षत्रे) देवोंकी शक्तिमें (मे आ धावतम्) मेरी तरफ दौड़ते हुए आओं । एवं (नरा हस्तिभि: सुतं सोमं न) मेरे सोमरसकी ओर जो मानो3 मनुष्योंके हाथोंसे निचोड़कर निकाला गया है, (पड् भिः) _________________ 1. देवताओं । स्वर् देवताओंका ''अपना घर'' है । 2. सत्य-सचेतन सत्ताकी दिव्य शक्ति, जिसे अगली ऋचामें 'देवताओंकी शक्ति' कहा गया है । 'बृहत्' शब्दसे उस स्तर या 'विशाल लोक' का सतत वर्णन किया गया है जो सत्यम्, ऋतम्, बृहत् है । 3. ''मानो'' इस शब्दका प्रयोग, जैसा कि प्रायः देखनेमें आता है, यही दिखलाता है कि सोमरस और उसका निष्पीडन रूपक और प्रतीक हैं । १९१ आ धावतम्) पैरोंसे रौंधते हुए अपने घोड़ोंके साथ द्रुतवेगसे आओ । (बिभ्रतौ) हे दानोंके वहन करनेवाले देवो ! (अर्चनानसम्1) प्रकाशके पथिककी ओर आओ । __________ 1 अर्चनानस-वह जो शब्दसे जनित प्रकाशकी ओर यात्रा करता है । यह इस सूक्तके अत्रिवंशीय ऋषिका अर्थगर्भित नाम है । १९२
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